Friday, January 14, 2011

" मेरी बात "


बहुत दिनों बाद आना हुआ मेरा इस ब्लागस्पाट की गली में , लेकिन क्या करें जब अपने ही मखौल उड़ाने लगे तो एक सहारा तो यह बन ही जाता हैअब ऐसी कोई बड़ी बात नहीं हुयी मेरे साथ , मगर जब एक्साम शुरू होने पर , एक्साम ख़त्म होने पर , नए साल के आने पर और तो और पूर्णिया के विधायक की हत्या की बात और सिटी बैंक के घोटाले की बात ना धक्का दे सके और लेखनी की दूरी को मिटा सके , तो माँ की सिर्फ एक बात यहाँ तक ले कर गयी अभी बस कुछ - दिन पहले जब कडाके की ठण्ड हो रही थी, मैं और मेरी माँ अग्नि देवता को घेर कर बैठे हुए थे ( यूँ लग रहा था जैसे पुलिस ने किसी अपराधी को घेर रखा हो इस मंशा के साथ की आज तो कहीं नही जाने देंगे तुम्हे ) । अब अग्नि देव की कृपा जैसे ही हमारे ऊपर बनी....... सरस्वतीजी भी हम पर कृपालु हो गयी हैं.... और बस मैंने अपना भावनात्मक lecture देना शुरू कर दिया जो कि पूरी तरह से समर्पित था ...." गोमती नदी के किनारे रहने वाले गरीब लोगों पर जो इतनी ठण्ड में भी फुटपाथ पर अपना जीवन व्यतीत करते हैं " बस मैं भावनाओ के अरबियन सागर में गोते लगाते ही जा रही थी की माँ कि बात ने सारे उमड़ते हुए सागर में सूखा ला दिया , उन्होंने भावनाओ से परे होते हुए ऐसे वचन सुनाये कि हमारी जिह्वा पर पूर्ण विराम लग गया .................. ज्यादा कुछ नहीं , उनका बस यही कहना था ... " बस यही कमी है तुम लोगों कि युवा पीढ़ी में , तुम लोग सोच कर और lecture दे कर काम चला लेते हो, अगर तुम्हे इतना ही महसूस हो रहा है, इतनी ही दया रही है तो कुछ करो उन लोगो के लिए, उनकी भलाई के लिए , सिर्फ lecture से लोग नहीं बदलेंगे , कुछ अच्छे और प्रभावशाली कदम उठाने से बदलेंगे..." अब इतना सुन कर पहले तो माँ के ऊपर मझे बड़ा गर्व हुआ कि कितनी अच्छी वक्ता हैं ये..... फिर जब लगा कि ये तो हम जैसे लोगो के लिए कुछ कहा गया है तो बड़ी बेइज्जती महसूस हुयी......... मगर फिर याद आई हमें अपने " सुपर एक्टिव गुरु मुकुल सर " के बोल वचन..... " बेइज्जती और ठण्ड जितना महसूस करोगे उतनी ज्यादा लगेगी "............. बस फिर तो ना मैंने ठण्ड महसूस कि और ना ही बेइज्जती और गए नॉर्मल मोड पर , अब इसके सिवाय और कुछ कर भी नहीं सकती थी .....पर माँ की बात ने मुझे ये एहसास तो करा दिया कि आज भी हम सोचते ज्यादा हैं और करते कम.........और शायद अब वक़्त है कि हम सोच को बदले और समाज को भी.........

Sunday, October 31, 2010

" "जोर का झटका "


"जोर का झटका हाय ज़ोरों से लगा ...." आजकल ये गीत सभी की जुबान पर छाया हुआ है।
पर कल तो इस गाने का निरूपण ही मेरी जिंदगी में हो गया और जोर का झटका ज़ोरों से ही लगा..... बहुत दिनों बाद या फिर सच्चे मन से कहू तो पहली बार जिंदगी की सच्चाई को इस रूप में देखा । सब कुछ पता होने के बावजूद भी एक धक्का सा लगा , क्या ये हमारा " भारत " है......!!!!!!!!! वही हिन्दुस्तान है जिसकी एकता और समानता पर हम गर्व करते हैं , जहां स्त्रियों की पूजा करने की बाते की जाती हैं........ भले ही आज ऐसा ना हो ( खैर ये तो कहने की बात है ) मगर हमारा इतिहास तो वही है , जलता हुआ और मजहबी खून से सना हुआ ......
इन सब बातों को करने की वजह भी मै बताती चलूँ , कल हमारे विभाग में सामूहिक रूप से एक documentary फिल्म दिखाई गई जिसका नाम था " SOn , father and holy war " ( director - आनंदजी )। नाम सुनकर तो लगा कि कुछ तो खास है इसमें लेकिन देखने के बाद लगा कि इस फिल्म ने तो हमारे काले इतिहास का आइना ही दिखा दिया........ और समानता कि बात करने वाले लोगों के चेहरे पर पड़े नकाब को हटा दिया। थैंक्स मुकुल सर .... जिन्होंने ये फिल्म हमें दिखाई।
आज तक हम जिस उन्नत भारत के २५ वर्षों ( १९८५ से अब तक ) कि गिनती गिनते आ रहे थे , उन वर्षों कि असलियत जब निकल कर सामने आ गई तो एक बार को दिल-ओ-दिमाग हिल सा गया। एक तरफ सती-प्रथा को बढ़ावा , विधवा विवाह पर रोक, मजहबी लड़ाई , जहां इंसान ही इंसान को मारने और मरवाने पर लगा हुआ है और सबसे बड़ी बात नारियों को पूजे जाने वाले देश में " नारियों कि औकात " को दिखाती इस फिल्म ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया........ पर जैसा कि हमारे सर कहते हैं की सिर्फ सोचने से कुछ नहीं होगा, तो ये वक़्त है कुछ करने का क्युकी इन सब मजहबी और दकियानूसी विचार धारा के कीड़े ना तो कभी मरते हैं और ना ही सोते हैं बल्कि हमारी नीव को खोखला कर एक ही धक्के में गिराने कि साजिश करते रहते हैं.........
अब तो बस यही प्रार्थना है इश्वर से कि कल के मिले इस झटके से उबारने कि जगह उस धक्के कि वजह को ख़तम करने का दृढ साहस हम सभी को दे, जिससे आगे हम दिशा में कुछ कर सकें.... ताकि आने वाली पीढ़ी को कम से कम अपना इतिहास देख कर शर्मिंदगी ना महसूस हो ................................

Friday, October 15, 2010

काश ऐसा होता.....!!!!!!


जाने अनजाने कभी कभी जिंदगी हमें ऐसी राह पर खड़ा कर देती है , जहां हम ये भी नहीं सोच पाते की हमें आगे बढ़ना है या कुछ पल का ठहराव लेना है । वैसे तो जिंदगी चलने का ही नाम है । समय , रेत और पानी की तरह हाथ से निकलता ही जाता है , जिसे चाहकर भी कोई अपनी मुट्ठी में कैद नहीं कर पता और बस जो इस समय की गतिके साथ आपने को ढाल लेता है, वही बिना किसी स्पीड ब्रेकर के आगे बढ़ता जाता है ।
इसी तेज़ रफ़्तार जिंदगी में अक्सर कुछ ऐसी गलतियाँ भी जुडती जाती हैं , जिन्हें शायद हम अपनी जिंदगी से कभी अलग नहीं कर पाते................. यही सोचते हुए मन में एक ख्याल आया कि काश कंप्यूटर सिस्टम की तरह हमारी जिंदगी में भी " अन्डू " का विकल्प होता...... जिससे हम अपनी जिंदगी के उन पलों को मिटा सकते , जिन्हें हम कभी याद नहीं करना चाहते ......... रिवर्स और फॉरवर्ड के विकल्प तो होने ही थे कि जब ये सुपरफास्ट जिंदगी हमे बहुत बोर करने लगे तो हम इसे फॉरवर्ड कर आगे बढ़ सकते और जब उन मीठेपलों की जिन्हें हम फिर से जीना चाहते हैं याद आये तो रिवर्स करके उनकी एक झलक पा सकते............. और कम -से- कम इस दौड़ती भागती जिंदगी में थोडा सा ठहराव लाने के लिए पॉज विकल्प की व्यवस्था होनी ही थी...... हाँशायद कट, कॉपी , पेस्ट और एडिट के विकल्प तो जिंदगी में रंग ही भर जाते , मगर... फिर वही कि काश ऐसा होता
अरे हाँ एक्सिट और न्यू के दो महत्वपूर्ण विकल्प के तो कहने ही क्या....., इसे तो पृथ्वी के समझदार प्राणियों ने सबसे अच्छे तरीके से सीखा है। कंप्यूटर सिस्टम कि तरह ही असल जिंदगी में ये दो विकल्प सबसे आसान हैं, क्यूकि यहाँ भी जब जिसका मन हुआ किसी को अवतरित किया और जिसका मन भर गया वो I QUIT " कह इस दुनिया से एक्सिट हो लिया....!!
और अगर आप सोच रहे हैं कि मै कंप्यूटर के पीछे क्यों पड़ गयी हूँ तो सच तो यही है कि लोगोंकी आजकल कि जिंदगी में रिश्तों , खाने और पीने से ज्यादा कंप्यूटर का स्थान बनता जा रहा है और जब ये मशीन हमारी जिंदगी से इतना ज्यादा जुड़ रहा है तो क्यों ना हम अपनी जिंदगी को इससे जोड़ कर देखें.......
खैर ये तो मैंने अपने कल्पनाशीलता के पंख में थोडा "vibration" ला कर एक खुशनुमा जिंदगी की कल्पना कर डाली और लगे हाथों अपने कंप्यूटर ज्ञान का सूक्ष्म प्रदर्शन भी कर लिया ....मगर फिर भी मन मेंएक बात तो रह ही जाती है...... कि " काश ऐसा होता................"
.....!!!!!!! "

" अनजाने से रिश्ते "


बड़े अनजाने होते हैं ये रिश्ते ,
ख़ुशी और गम का पुलिंदा होते हैं ये रिश्ते,
कभी मिटटी के घरौंदे से ढह जाते हैं रिश्ते,
तो कभी आँखों पलकों सा साथ निभाते हैं ये रिश्ते,
आंसुओं में बिखरते ये रिश्ते.....
कलाईयों से निकलते लहू से बह जाते ये रिश्ते...
कभी दो बातों में बनते ये रिश्ते....
कभी बिन कुछ कहे टूट जाते ये रिश्ते.......
सितारों की लड़ी से ये रिश्ते........
जिंदगी की लय पर चलते घडी से ये रिश्ते..........
कभी मुस्कान देते...
कभी रुला देते ये रिश्ते...........
टूटते बनते , संभलते ये रिश्ते......
कोई न समझ पाया है इनकी कहानी.....
इसमें बसी मोहब्बत .......
इसमें बसी जुदाई.......
कभी लगते अनजाने.........
कभी लगते फ़रिश्ते.........
ऐसे अपरिभाषित होते हैं ये रिश्ते.............

Sunday, October 3, 2010

" तुझे सब है पता माँ "


कभी कभी लगता है अगर घर में हमारे "माँ " न हो तो कैसा हो ??? ये सोच कर ही दिल घबरा जाता है...... मगरजब किसी आपने खास के साथ ऐसा हो तो भी दिल बैठ सा जाता है । आज ये कविता मै ऐसे ही आपने एक खासमित्र के लिए लिख रही हू..................
कब्र की सी आगोश में जब थक कर के सो जाती है "माँ".....
तब कही जा कर थोडा सुकून पाती है "माँ "......
फिक्र में बच्चों की कुछ ऐसे ही घुल जाती है "माँ "......
नौजवान होते हुए बूढी नजर आती है "माँ "........
रूह के रिश्तों की ये गहराइयाँ तो देखिये ....,
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है "माँ ".....
कब जरुरत हो मेरी बच्चों को इतना सोच कर ....
जागती रहती है आँखें और सो जाती है "माँ ".....
घर से परदेश आता है कोई नूरे नजर ....,
हाथ में गीता को ले कर दर पे आ जाती है "माँ "
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम परदेश में ...,
आसुओं को पोछने ख्वाबों में आ जाती है "माँ "..................
चाहे हम खुशियों में "माँ " को भूल जाएँ दोस्तों .....
जब मुसीबत सर पे आ जाये तो याद आती है "माँ "
लौट कर सफ़र से वापस जब कभी आते हैं हम ....
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है "माँ "...
हो नहीं सकता कभी एहसान उसका ही अदा...
मरते- मरते ही दुआ जीने को दे जाती है "माँ "
मरते दम बच्चा न आ पाए अगर परदेश से........
अपनी दोनों पुतलियों को चौखट पर रख जाती है "माँ "....................


Wednesday, September 15, 2010

" मायने attitude के "


बीते हफ्ते से ही हमारे पत्रकारिता विभाग में चहल - पहल काफी बढ़ गई है , कुछ नए तो कुछ पुराने चेहरे फिर से हमारे विभाग को गुलज़ार कर रहे हैं मगर ये चहल पहल कब तक रहने वाली है यह कहना अभी से ही मुश्किल लग रहा है.........
अब मै यह इसलिए कह रही हूँ क्यूकि उन गायब होने वालो से एक नाम तो मेरा ही है , तो भाई जैसे सावन के अंधे को सब हरा ही दिखता है वैसे ही मुझे भी लग रहा है कि मै नहीं जा रही तो कोई भी नहीं जा रहा होगा........ खैर ये तो हुई मेरी बात कि मै कितने गर्व से ना जाने कि बात स्वीकार कर रही हूँ....... इसे आप मेरा attitude भी कह सकते हैं दरअसल attitude कि बात मै इसलिए कर रही हूँ , क्यूकि बीते हफ्ते जब मैंने क्लास में अपने कदम रखे तो बात रुकी हुई थी attitude पर ...और मेरे होनहार सहपाठी लगे हुए थे अपने विचार प्रस्तुत करने में....... कुछ देर तो मैंने उनकी बात बहुत ध्यान से सुनी , उन्होंने सबके सामने अच्छी बाते रखी जो कि थोड़ी आदर्शवादी भी थी और मुझ जैसे साधारण सोच वाली लडकी के लिए बहुत ऊंची बस इसीलिए थोड़ी ही देर बाद मै "ATTITUDE" नामक शब्द को अपने रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जोड़ने लग गयी जिसमे कि थोडा तो यथार्थ हो
सोचते हुए मुझे बीता हुआ सेमेस्टर याद गया जिसमे हमारे मन में खुद के लिए बहुत ज्यादा नकारात्मक attitude भरा हुआ था और वो भी कि हमारे क्लास की संख्या को ले कर हमारे जितने भी गुरुजन आते एक ही नजर में पूरे क्लास की संख्या गिन जाते जो कि बहुत मुश्किल से से निकलती और कभी कभी तो कमाल ही हो जाता था जब आने वालो कि संख्या रह जाती थी - , फिर जब उनकी नजर हम पर पड़ती तो लगता था कि कहीं छुप जाएँ वरना कम लोगों के आने के अपराध में कहीं हमें "तिहाड़ जेल " ना भेज दिया जाए इसके बाद हमारी क्लास की इस उपलब्धि के लिए कुछ छोटे-छोटे और दिल को छु जाने वाले वाक्य बोले जाते थे, और फिर हमारी नकारात्मक सोच में थोड़ी सी और बढ़ोत्तरी हो जाती थी , बस इसी नकारात्मक attitude के साथ हमारे दो सेमेस्टर बीत गए
पर इस सेमेस्टर कि शुरुआत में ही ये नकारात्मक attitude सकारात्मक attitude में बदल गया..... अब अगर आपको लग रहा हो की हमारी क्लास की संख्या में कुछ अंतर आया तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है......... बस हमारी सोच में थोडा अंतर हो गया वो भी इसी attitude की क्लास के दौरान वो भी की तब जब हमारे "विभाग के नैया के खेवैय्या " ने एक बात कही कि शायद हमारी क्लास कुछ ज्यादा ही होनहार है , जिन्होंने कि कोर्से के पूरे होने के पहले ही अपने रास्ते बना लिए ......
अब और किसी को कोई फर्क पड़ा हो या नहीं लेकिन मै कुछ ज्यादा ही खुश हो गयी और अपने सोच के दायरे को बढ़ा कर जो कुछ कहना चाहती थी लोगो के बीच में वो भी भूल गयी पर हाँ संतुष्टि एक बात कि हुई कि और कुछ मिला मिला पर एक सोच मिली , कुछ करने का और आगे बढ़ने का रास्ता तो मिला वो भी एक " सकारात्मक attitude " के साथ अब मेरी यह सोच ही तो मेरा सकरात्न्मक attitude है...... क्या कहते हैं आप.........

Sunday, July 25, 2010

"नटखट प्राणी जिनसे हुई हैरानी..."


"कभी चुपके से कानों में कुछ कह जाते ये.......... कभी अनजाना स्पर्श दे जाते ये .......... कभी अपने नटखट कामों से , अपनी मौजूदगी का एहसास कराते ये ........... और कभी कभी हॉस्पिटल भी पहुंचाते ये ........!!!!!!!!!"
अरे मै किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं कर रही .... जी हाँ मै बात कर रही हूँ , उन छोटे - छोटे मच्छरों की जो बहुत बड़े -बड़े काम करते हैं अब आप अगर सोच रहे हैं , कि मुझे इनकी याद क्यूँ आई ??
तो मै अब वही बताने जा रही हूँ
अब करूँ क्या , बीती रात इन्होने ऐसा गीत गुनगुनाया और खुद का पेट भरा है , कि मुझे उनका गीत अभी तक याद है , अब बोल क्या थे ये तो मै नहीं बता सकती पर भाव तो मै समझ गयी थी लग रहा था मानो यही गा रहे हों ............
" भीगे पंख मेरे , प्यासे डंक मेरे ......... लगे अमृत सा मुझे खून तेरा ............. कभी मेरे साथ कोई रात गुज़ार .....तुझे सुबह तक मै कर दू लाल.........कर दूँ बीमार ... वो ओहो .............."
अब इनके इस भयावह गान के बाद तो निद्रा माता मुझे इनके पास अकेला छोड़ कर कोसों दूर भाग गयीं और बार - बार बुलाने पर भी नहीं आईं............ तो बस मैंने भी ठान ली कि इनकी प्रशंसा में दो - चार वाक्य तो ज़रूर लिखूंगी
कभी - कभी तो लगता है कि भगवन ने इंसानों को बनाया तो बनाया , लेकिन इन मच्छरों को क्यूँ बनाया ...????? फिर समझ में आया , भाई कुछ आरामपसंद लोगों के आराम को हराम करने के लिए कुछ माध्यम तो होना ही चाहिए , तो बना दिया होगा भगवन ने इन मच्छरों को............
फिर एक बात और आई दिमाग में , कि आखिर हम लोग इतनी मेहनत से मन लगा कर अपने घर के आस - पास या फिर कहिये , पूरे मोहल्ले में या फिर कहिये तो पूरे शहर में गन्दगी फैलाते हैं ,तो कोई तो हो जो हमें इस मेहनत का फल दे .......हमें हमारी मेहनत का उपहार दे....., तो बस इसी का एक सर्वोत्तम माध्यम बना दिया हमारे परम पिता परमेश्वर ने जिसका नाम है .........मच्छर .....!!!!!
और फिर से हमें एक बार पुण्य काम करने का मौका दिया , मतलब कि " रक्तदान" का ......
बस यही काम मैंने कल किया और आज गयी यहाँ गुणगान करने ........
तो अगर आपको भी यह पुण्य काम करना है , तो...... "गन्दगी फैलाओ , मच्छर बचाओ " और उसके बाद करो "रक्तदान ".......